Manav Tattva Tatha Varnvivek (Anthropology) / मानव-तत्त्व तथा वर्णविवेक

Author
: Bhargava Shivramkinkar Yogtrayanand
Language
: Hindi
Book Type
: Reference Book
Category
: Sociology, Religion & Philosophy
Publication Year
: 2012
ISBN
: 9788171248353
Binding Type
: Hard Bound
Bibliography
: iv + 164 Pages; Size : Demy i.e. 22.5 x 14.5 Cm.
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मानव-तत्त्व तथा वर्णविवेक
(Anthropology)
प्रस्तुत ग्रन्थ जिन महामानव की कृति है, उनके सान्निध्य में आकर स्वामी विवेकानन्द, उपन्यासकार बंकिमचन्द चटर्जी, महामहोपाध्याय डॉ० पं० गोपीनाथ कविराज जैसे महापुरुष स्वयं को कृतार्थ कर चुके हैं। इससे अधिक इनके सम्बन्ध में और क्या कहा जा सकता है? प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रात:स्मरणीय ग्रन्थकार ने मानव-तत्त्व की जो विशद तथा सारगर्भित व्याख्या की है, उसमें पाश्चात्य विज्ञान, पाश्चात्य दर्शन से भारतीय दर्शन तथा वेद-विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन इस तथ्य को परिपुष्ट कर देता है कि इस देश की प्रतिभा ने सृष्टि के रहस्य को जिस गहराई में जाकर उद्घाटित किया था, उससे आज का उन्नत जड़विज्ञान अभी भी अनेकांश में उपकृत हो सकता है। यह जड़विज्ञान आज भी चेतना के विज्ञान को नहीं जान सका है, जो समस्त विज्ञान का, साइंस का मूल है। यह जड़विज्ञान भले ही 'Anatomy' आदि शरीर-विज्ञान के अध्ययन में चरम की ओर पहुँचता जा रहा है, तथापि मानव के प्रकृत तत्त्व की सीमारेखा का भी स्पर्श कर सकने में सक्षम नहीं हो सका है। चेतनासमुद्र का एक बिन्दु भी उसे प्राप्त नहीं हो सका है, जिसमें हमारे चिन्तक, मनीषी, ऋषि अबाध रूप से सन्तरण करते रहते थे। चेतन में जड़ तथा जड़ में चेतन देखने का विज्ञान आज भी वैज्ञानिकों की खोज का आधार है।
वास्तव में सृष्टि का समस्त रहस्य मानव-अस्तित्व में अन्तर्निहित है। यह हमारे चेतन विज्ञान (शास्त्रों) का उद्घोष है। मानव विधाता की अनमोल कृति है। यह काल के अन्तर्गत प्रतीत होने पर भी कालातीत, टाइम तथा स्पेस से भी अतीत हो सकता है। इसी में जीवन-मृत्यु का रहस्य भी अन्तर्लीन है। अमरत्व की प्रकाश-रेखा भी इसी मानव-अस्तित्व के माध्यम से अनुभूत हो सकती है। 'सबाई ऊपर मानुष सत्य तार ऊपर नाई' सबसे ऊपर मनुष्यरूपी सत्य है। इससे ऊपर कुछ नहीं है। यह ज्ञान, विज्ञान तथा प्रज्ञान की चरम परिणति है।
पूज्य ग्रन्थकार ने अपनी साधनपूत दृष्टि से मानव-तत्त्व का जो अवलोकन किया, उसका सार इस ग्रन्थ में उन्होंने अंकित किया है। वैसे वे इतना ही इस विषय में लिखकर सन्तुष्ट नहीं थे, इस ग्रन्थ के अध्ययन से यह विदित होता है। परन्तु कुछ काल पश्चात् इनके द्वारा भगवत्-प्रेरणा से ग्रन्थ-लेखन भी त्याग दिया गया और अनेक लिखे ग्रन्थ गंगाfर्पत कर दिये गये। विषय इससे आगे न बढ़ सका। यह भले ही इन सर्वत्यागी के लिए परम नि:श्रेयस का क्षण हो, तथापि जिज्ञासुगण के लिए यह दुर्भाग्य का विषय ही कहा जायेगा। फिर भी एक दृष्टि से सन्तोष तो होता ही है कि यह ग्रन्थ प्रकृत मानव-तत्त्व के जिज्ञासुगण के पथ- प्रदीप के रूप में उनका मार्गदर्शन करता रहेगा।



