Nath Aur Sant Sahitya : Tulnatmak Adhyayan / नाथ और संत साहित्य : तुलनात्मक अध्ययन
Author
: Nagendranath Upadhyay
Language
: Hindi
Book Type
: Reference Book
Category
: Adhyatmik (Spiritual & Religious) Literature
Publication Year
: 1997
ISBN
:
Binding Type
: Hard Bound
Bibliography
: xxvi + 700 Pages; Size : Demy i.e. 22.5 x 14.5 Cm

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 नाथ और संत साहित्य : तुलनात्मक अध्ययन

भारतीय अध्यात्मसाधन की रहस्यमयी प्रगति की समीक्षा के प्रसंग में मध्ययुग का इतिहास सर्वथा महत्त्वपूर्ण है। मध्ययुग में भी नाथ सम्प्रदाय की योगसाधना तथा संतों की योगसाधना विशेष रूप से उल्लेखयोग्य है। प्राचीन होने पर भी उस समय में जो शैव तथा वैष्णव आगममूलक साधनाएँ देश में प्रचलित होकर विस्तार को प्राप्त हुई थीं, वे सुदीर्घ काल तक अपने अपने गुरुत्व का संरक्षण कर सकी थीं। दोनों ही साधनाएँ यद्यपि योगसाधना के अन्तर्गत थीं तथापि नाथ सम्प्रदाय के योगी विशेष रूप से ज्ञानपथ के पथिक थे तथा संतों के साधन में भक्तिमार्ग का ही प्राधान्य था। यद्यपि उभय संम्प्रदायों में कुछ संस्कृत ग्रंथ उपजीव्य है तथापि विशेष रूप से दोनों सम्प्रदायों ने प्रादेशिक भाषाओं का अवलंबन करके अपना प्रचार किया था और इस प्रकार वे अपने उपदेशों का भी प्रसार किया करते थे। मध्ययुग में इस प्रकार ऐसे बहुत सं सम्प्रदायों का उद्भव हुआ था जिनकी चिन्ताधारा उनकी चिन्ताधारा में सर्वथा सूक्ष्म रूप से परिलक्षित होती थी। इन सम्प्रदायों में नाथ तथा संत सम्प्रदाय ही अधिक विशिष्ट, सम्पन्न और व्यापक थे, इसमें संदेह नहीं। इन दोनों सम्प्रदायों के आधार तथा सिद्धान्तों के विषय में तुलनात्मक आलोचन की आवश्यकता सभी साहित्यिक लोग अनुभव करते थे।

इस पुस्तक में निरपेक्ष दृष्टि लेकर दोनों सम्प्रदायों के सम्बन्ध में विचारपूर्वक समालोचन करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें दोनों सम्प्रदायों, उनके साहित्य और उनके परस्पर सम्बन्धों का भी आलोचन है। प्रसंगत: शैव तथा वैष्णव सम्प्रदायों की चर्चा भी की गयई है और उनके साथ नाथों तथा संतों के सम्बन्ध का भी यथासम्भव विवेचन किया गया है। आनुषंगिक रूप से संत मत के उपोद्घात के आकार में भक्तिवाद का सुन्दर विवेचन किया गया है। भक्ति के सदृश योग की भी चर्चा की गयी है। उनसी के परिप्रेक्ष्य में नाथयोग के रहस्य को समझने में सुगमता होगी। यद्यपि शैव, शाक्त तथा तांत्रिक योग की बातें कही गई हैं, फिर भी उस विषय के साधन का मूल तत्त्व उतना परिस्फूट नहीं हुआ, जितना आवश्यक था।

—इसी पुस्तक से