Sanskrit Natakon Mein Shaurseni / संस्कृत नाटकों में शौरसेनी (विशेषत: कालिदास और राजशेखर के संस्कृत नाटक)
Author
: Shriranjan Surideva
Language
: Hindi
Book Type
: Reference Book
Category
: Sanskrit Literature
Publication Year
: 2006
ISBN
: 817124503X
Binding Type
: Paper Back
Bibliography
: iv + 44 pages, Size : Demy i.e. 21.5 x 14 Cm.

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विभिन्ïन प्राकृत-भाषाओं का नाट्य-प्रयोग सर्वप्रथम संस्कृत-नाटकों में उपलब्ध होता है। इनमें गद्य के लिए प्राय: शौरसेनी और पद्य के लिए प्राय: महाराष्टï्री का प्रयोग प्राप्त होता है। प्राकृतों के नामकरण प्राय: उन प्रदेशों पर आधृत होते हैं, जिन प्रदेशों में वे बोली जाती रही हैं। इसीलिए शूरसेन (मथुरा) में बोली जानेवाली भाषा का नाम शौरसेनी हुआ है। शौरसेनी की उत्पत्ति भारतीय आर्यभाषाओं से हुई है। डॉ० पिशल के मतानुसार, बोलियों में जो बोलचाल की भाषाएँ व्यवहार में लाई जाती हैं, उनमें शौरसेनी का स्थान सर्वप्रथम है। चूँकि संस्कृत नाटकों में भी बोलचाल या संवाद की प्रधानता होती है, इसीलिए उनके संवादों में शौरसेनी का समावेश स्वाभाविक है। इस भाषा की एक विशेषता यह भी है कि इसमें समग्र भाव से एकरूपता रहती है, जबकि अन्य प्राकृतों में समग्रत: एकरूपता नहीं दृष्टिïगत होती। प्रस्तुत कृॢत्त में संस्कृत-नाटकों में प्रयुक्त शौरसेनी के आकलन की दृष्टिï से महाकवि कालिदास और कविराज राजशेखर के नाटकों को लिया गया है। आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र (१७.४६) के अनुसार नाटकों के बोलचाल की भाषा शौरसेनी ही होनी चाहिए। कालिदास और राजशेखर ने अपनी नाट्यरचना में इसी का पालन किया है। ज्ञातव्य है, नाटकों में शौरसेनी एवं अन्य प्राकृतों का प्रयोग तब आरम्भ हुआ, जब अधिकतर प्राकृतभाषी संस्कृत समझते थे। वररुचि ने 'प्राकृतप्रकाशÓ (१२.२) में संस्कृत को शौरसेनी का आधारभूत माना है। उल्ïलेखनीय है कि शास्त्रीय संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त शौरसेनी संस्कृत की अपेक्षा अधिक सहजगम्य थी और अपभ्रंशभाषी भी आसानी से समझ सकते थे। आचार्य हेमचन्द्र ने आर्षप्राकृत के अनन्तर शौरसेनी की ही चर्चा की है।