Founder

पुरुषोत्तमदास मोदी


शीर्ष प्रकाशकों में से एक पुरुषोत्तमदास मोदी का जन्म 19 अगस्त 1928 को गोरखपुर में हुआ। इसी दिन सुप्रसिद्ध कथाकार स्वर्गीय शिवप्रसाद ङ्क्षसह भी पैदा हुए थे। यह एक विचित्र संयोग है कि दोनों ही व्यक्तियों में साहित्य चेतना और संवेदनशीलता अपने उत्कर्ष पर दिखाई देती है। रचना धॢमता दोनों में है। शिवप्रसादजी ने जहाँ उच्चस्तरीय कथा साहित्य की रचना की तो मोदी ने पूर्वांचल के तमाम रचनाकारों को पहचान दी। अपने प्रकाशन व्यवसाय को शिखर तक ले जाने के लिए अपना पूरा जीवन समॢपत करने के साथ ही वे साहित्य और साहित्यकारों के प्रति पूरी तरह सजग रहे, समाज के क्षण-क्षण परिवर्तन को संज्ञान में लेते रहे और जो कुछ उन्हें महसूस होता रहा उसे अपनी लेखनी से शब्द देते रहे। विचारों की अभिव्यक्ति के लिए मोदीजी के पास सशक्त भाषा-शैली है जो समय-समय पर लिखे गए उनके संस्मरणात्मक और विचारोत्तेजक लेखों में दृष्टिगत होती रहती है। मोदीजी एक मासिक पत्रिका 'भारतीय वाङ्मय' निकालते हैं जिसमें उनकी सम्पादकीय समसामयिक विषयों पर उनके दो-टूक विचारों और चुस्त भाषा के लिए सराही जाती है। अगस्त 2003 के अंक में प्रकाशित उनकी सम्पादकीय के कुछ अंश दृष्टव्य हैं, आज हिन्दी में प्रतिवर्ष हजारों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, क्या पाठकों को उनकी जानकारी हो पाती है? पुस्तकों की जानकारी पाठकों तक पहुँचाना सुविधाजनक नहीं है। प्रत्येक पुस्तक एक इकाई है, अन्य वस्तुओं की भाँति उनको विज्ञापित करना सरल नहीं है। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से नई पुस्तकों की जानकारी पाठकों तक पहुँचती रही है। इससे पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ पाठकों की पठन रुचि का भी विकास हुआ किन्तु अब जबकि हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का विशाल उद्योग स्थापित हो गया। एक-एक अखबार दस से तीस-तीस नगरों से निकल रहे हैं, करोड़ों की संख्या में उनके पाठक हैं, वे केवल उपभोक्ता सामग्री और राजनीतिक-आपराधिक समाचारों के माध्यम बन गये हैं। इन समाचार पत्रों में सप्ताह में अनेक पूरक निकलते हैं। बॉलीवुड के रंग-बिरेंगे चित्रों और चटपटी सामग्री से भरे रहते हैं या नवीनतम उपभोक्ता सामग्री की जानकारी कराते हैं। पुस्तकें उनके दायरे में नहीं आती। यदि सप्ताह में एक पृष्ठ पुस्तकों से सम्बद्ध सामग्री (परिचय, समीक्षा, नई पुस्तकों की सूचना) इन पत्रों में दी जाय, इससे पाठकों में पुस्तकों के प्रति रुचि जागृत होगी और पाठकों के अध्ययन प्रवृत्ति का विकास और स्तर उन्नत होगा। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो शून्यता ही व्याप्त कर दी है, पाठकों में पठन-पाठन की रुचि का विनाश कर दिया है। यह बौद्धिक शून्यता भावी पीढ़ी को किधर ले जा रही है? प्रिण्ट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों का दायित्व है कि पाठकों की रुचि का विकास करें न कि उनमें विकृति लाए। किन्तु पुस्तकों की जानकारी पाठकों तक पहुँचे कैसे? .....समाचार पत्र जो जानकारी के सबसे बड़े माध्यम हैं, वे इस विषय में पूर्णतया उदासीन हैं।


इस उम्र में भी मोदीजी चैतन्य और सक्रिय हैं। उन्हें इस बात की पीड़ा है कि बनारस के साहित्यकार, मीडिया, प्रशासन, सरकार सभी मुंशी प्रेमचंद के पीछे दीवाने हैं, यह दीवानगी बुरी नहीं है, लेकिन जयशंकर प्रसाद उपेक्षित हैं। प्रेमचंद के साहित्य में सामाजिक पक्ष जितनी ऊँचाई छू रहा है उतनी ही प्रसाद के साहित्य में सांस्कृतिक और दार्शनिक पक्ष। वह सवाल उठाते हैं कि कया कोई समाज संस्कृति के बिना कायम रह सकता है? इस दिशा में मोदीजी से जो कुछ बन पड़ रहा है, कर रहे हैं। उन्होंने प्रसादजी के बारे में दुर्लभ संस्मरणों का सम्पादन कर उसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। दूसरी पुस्तक की तैयारी में लगे हैं। जो कुछ संस्मरण बाकी रह गए हैं उन्हें समेटने के लिए। उनका प्रयास प्रसादजी का एक भव्य स्मारक बनवाने का भी है। वे जयशंकर प्रसाद स्मृति वातायन के उपाध्यक्ष भी हैं। बनारस के बारे में मोदीजी के दिमाग में न जाने कितनी यादें कुण्डली माकर बैठी हैं। उन्हें वे समयसमय पर अपनी लेखनी के माध्यम से कागज पर उतारते रहते हैं।


एक पत्रकार और समाजसेवी के रूप में अपना कैरियर शुरु करने वाले मोदीजी लगभग डेढ़ दर्जन सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे। फिलहाल वे 'भारतीय वाङ्मय' और 'मुमुक्षु' के सम्पादक हैं। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के सलाहकार रहे, गोरखपुर विश्वविद्यालय संस्थापना सोसाइटी के सदस्य रहे, उत्तर प्रदेश के भाषा संस्थान के पूर्व सदस्य रहे, बनारस के मारवाड़ी अस्पताल के संयुक्त मंत्री रहे। इन जैसे दर्जनों संस्थाओं में सक्रिय रहे। श्री काशी मुमुक्षु भवन सभा, वाराणसी एवं कलकत्ता के उपाध्यक्ष भी हैं।


31 अगस्त 1997 में अखिल भारतीय हिन्दी प्रकाशक संघ ने अपने 38वें अधिवेशन में मोदीजी का अभिनन्दन किया। अभिनन्दन समारोह की अध्यक्षता प्रख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकरजी ने की और दैनिक जागरण समाचार-पत्र समूह के सम्पादक स्व० नरेन्द्रमोहन ने अभिनन्दन किया। मोदीजी को जो अभिनन्दन पत्र दिया गया उसमें कहा गया है कि ''आप (मोदीजी) बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। लेखन, पत्रकारिता ओर समाजसेवा, इन सब क्षेत्रों में आपका योगदान अनुपम है.....पिताजी के पुस्तक-प्रेम ने आप में साहित्य-प्रेम के बीज बोये।.... आपने पितृविहीन अवस्था में एम०ए० तक की शिक्षा प्राप्त की और शिक्षणकाल के दौरान अपने स्कूल कालेज की साहित्यिक गतिविधियों के केन्द्र में रहे। उन्हीं दिनों आप मुंशी प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, बनारसीदास चतुर्वेदी, शंभुनाथ ङ्क्षसह, धर्मवीर भारती आदि मूर्धन्य साहित्यकारों के सम्पर्क में आए। प्रशिक्षण के काल के दौरान आपकी रचनाएँ उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं।.....आपने अपने साहित्यिक सम्पर्कों से जो अनुाव प्राप्त किया वह गोरखपुर से प्रकाशित 'आरोग्य नामक पत्रिका के सम्पादन में पहली बार मुखर हुआ। बाद में यही अनुभव काशी से प्रकाशित पत्रिका 'मुमुक्षु के सम्पादन में काम आया। तत्पश्चात प्रकाशक संघ के मुखपत्र 'हिन्दी प्रकाशक के सम्पादन में इसी अनुभव का हम सबको लाभ मिला।.... अखिल भारतीय हिन्दी प्रकाशक संघ के प्रति आपका योगदान स्मरणीय है। आपने अपने दो सत्रों के कार्यकाल में इस संगठन के महामंत्री पद को सुशोभित किया है और चार वर्ष तक इस संगठन के मुखपत्र 'हिन्दी प्रकाशक' का सम्पादन किया। आपके कार्यकाल में यह संगठन उत्तरोत्तर उन्नति के पथ पर अग्रसर रहा है।..... मोदीजी, आप में विनम्रता और कार्य कुशलता का अद्भुत समन्वय हुआ हे। आप जैसी बहुमुखी प्रतिभा से युक्त व्यक्ति का अभिनन्दन करते हुए अखिल भारतीय प्रकाशक संघ स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहा है और आपके स्वस्थ रहने तथा शतायु होने की कामना करता है।


इस अवसर पर मोदीजी ने अपने आभार प्रदर्शन में दो-टूक लहजे में कहा, ''विगत चार दशकों में हमारे देश ने भौतिक समृद्धि के लिए औद्योगिक और यांत्रिक संसाधनों की ओर दृष्टि केन्द्रित की। जिस मनुष्य की ओर इन सबकी अपेक्षा है, उसके निर्माण की ओर, उसे शिक्षित करने की ओर ध्यान नहीं दिया गया, न दिया ही जा रहा है। फलस्वरूप समृद्धि की सभी योजनाएँ विफल हुईं और शिक्षाविहीन, विवेक शून्य व्यक्ति में विकृति आती गयी। देश जनतंत्र के अपने मूलभूत आधार से छटक रहा है और व्यक्तिवादी होता जा रहा है, जिससे उसमें सभी प्रकार की विकृतियाँ आती जा रही हैं। यही कारण है कि विकास और प्रगति के सभी साधन भ्रष्ट और अपराधग्रसित हो गये हैं। आज हम राजनीतिज्ञों की जमींदारी में रह रहे हैं, जिस प्रकार जमींदारों के काङ्क्षरदे उनके जाने-अनजाने रियाया का दोहन करते थे, आज वही काम उनके प्रशासनिक अधिकारी कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में दोनों ही जमींदार हो गए हैं।... पुस्तक प्रकाशन और विक्रय मेरा पारिवारिक व्यवसाय नहीं है। विद्वानों, साहित्यकारों का सत्संग मुझे इस क्षेत्र में ले आया। पं० माखनलाल चतुर्वेदी जिनके चरणों में बैठकर कलम पकड़ी, पत्रकारिता सीखी, सम्पूर्णानंदजी, आचार्य नरेन्द्रदेव प्रभृति अनेक मनीषियों का सान्निध्य और आशीर्वाद मिला, उनकी ही प्रेरणा मुझे इस क्षेत्र में ले आई। यद्यपि मेरे परिवार के अन्य सदस्य विभिन्न व्यवसायों के माध्यम से आज करोड़पति हैं किन्तु इस व्यवसाय से आज मुझे जो सम्मान और प्रतिष्ठा मिली है, वह मेरे लिए बहुत बड़ी सम्पत्ति है। इसी अमूल्य निधि से मोदीजी आज भी ऊर्जा ले रहे हैं। मोदीजी जब नौ वर्ष के थे, तभी उनके सिर से पिता का साया उठ गया। इनके घर कपड़ा, गल्ला आदि का व्यवसाय होता था। लेकिन मोदीजी के भीतर अंकुरित पत्रकार, साहित्यकार और समाजसेवी ने पैतृक व्यवसाय की तिलांजलि दे दी ओर 1952 में गोरखपुर में पुस्तकों का व्यवसाय आरम्भ किया। 1964 में वाराणसी में विश्वविद्यालय प्रकाशन की स्थापना की ओर प्रकाशन के क्षेत्र में नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए। शिवानी का पहला उपन्यास 'चौदह फेरे' इसी संस्थान से छपा।


मोदीजी आज की राजनीतिक स्थिति से दु:खी रहते हैं। उसे बातचीत में प्राय: व्यक्त करते रहते हैं। प्रकाशन व्यवसाय के आदर्शों में आ रही गिरावट से भी खिन्न रहते हैं। बहुत कुछ रचना चाहते हैं। बहुत कुछ करना चाहते हैं। उनकी आकांक्षाएँ किस हद तक पूरी हो पाती है, यह भविष्य बताएगा। 'जीवेम् शरद: शतम्'।