Darshan, Dharma Tatha Samaj / दर्शन, धर्म तथा समाज (राजाराम शास्त्री) [चयनित संग्रह]
Author
: Ramesh Chandra Tiwari
Language
: Hindi
Book Type
: Reference Book
Category
: Sociology, Religion & Philosophy
Publication Year
: 1994
ISBN
: 9AGDDTSH
Binding Type
: Hard Bound
Bibliography
: l + 556 Pages, Vocabulary, Size : Demy i.e. 24 x 16 Cm.
MRP ₹ 350
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प्रो० राजाराम शास्त्री भारत के एक प्रसिद्ध ङ्क्षचतक थे। शास्त्री जी ने दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, धर्म, राजनीतिशास्त्र, भारतीय समाज, आधुनिक भारत में दार्शनिक ङ्क्षचतन इत्यादि अनेक विषयों पर मौलिक लेखन किया था। शास्त्री जी के विविध विषयों पर किये हुए लेखन का संकलन तथा संपादन प्रो. रमेशचन्द्र तिवारी जी ने बड़ी सफलता और कुशलता से किया है। ग्रंथ का शीर्षक है दर्शन, धर्म, तथा समाज। इस ग्रंथ में शास्त्री जी की गहरी चिन्तन दृष्टि प्रतिबिम्बित होती हैं।
इस ग्रन्थ के नौ खंड हैं। प्रथम खंड में डॉ० भगवानदास का दर्शन, संपूर्णानंदजी का प्रमाण दर्शन, द्वंद्व-न्याय-प्राच्य और पाश्चात्य, मात्राभेद से गुणभेद, कर्ममीमांसा में ज्ञान और कर्म मानव जीवन की अवस्थाएं, निष्क्रिय नैतिकता, मानवतावाद और वर्तमान भारतीय समाज तथा गांधीदर्शन का विद्वतापूर्ण मूल्यांकन किया गया है।
ग्रंथ के दूसरे खंड में शास्त्री जी ने ऐतिहासिक दृष्टि से धर्म का मूल्यांकन किया है। समाज में व्यक्तियों के जीवन के लिए नैतिकता के आधार निर्माण करने हेतु धर्म का जन्म हुआ। फिर धर्म का रूप बदलता गया। शुरू में धर्म का स्वरूप कैसा रहा? धर्म और संस्कृति के परस्पर सम्बन्ध कैसे रहे? धर्म का क्षेत्र कितना व्यापक था? धर्म और अङ्क्षहसा के सिद्धान्तों में क्या ताल्लुक था? धर्म में आंतरिक समानता किस हद तक थी? इन सारे सवालों की चर्चा शास्त्री जी के लेखों मेंं तर्क के आधार पर विस्तृत तरीके से की गयी है।
ग्रंथ के तीसरे खंड में मनोविज्ञान का पांडित्यपूर्ण विश्लेषण है। मनुष्य की दो प्रवृत्तियों का जिक्र करते हुए शास्त्री जी ने लिखा है कि एक प्रवृत्ति है व्यक्तिपरक और परिग्रही और दूसरी है समाजपरक, आत्मत्यागी और लोकसंग्रही। स्वार्थ और परार्थ मानव स्वभाव के अविभाज्य अंग हैं।
ग्रंथ के खंड चार में समाजशास्त्र में व्यापक चर्चा की गयी है। प्रकृति और पुरुष, सभ्यता का उदय, व्यक्ति और समाज, वर्ग और वर्ण, मानव संघर्ष की पूर्णाहुति देने वाला युद्ध, कार्य नियोजन और निर्देश तथा भारत में समाज विज्ञान का विकास इत्यादि विषयों पर इस खंड में विस्तृत जानकारी दी गयी है।
ग्रंथ के खंड पाँच में भारत की प्राचीन जन व्यवस्था तथा वर्ण व्यवस्था की विस्तृत चर्चा शास्त्री जी ने की है। पूर्व खण्डों में भी इन प्रश्नों का विश्लेषण शास्त्री जी ने किया है। इस खंड में उनके पांडित्यपूर्ण विश्लेषण का विशेष दर्शन होता है।
खण्ड छह में राज का स्वरूप, राज का विकास और भविष्य, राजनीति के आॢथक आधार जनतांत्रिक समाजवाद के साधन, रचना और संघर्ष, भारतीय समाजवादी राजनीति इत्यादि विषयों पर शास्त्री जी ने अपने विचार स्पष्टïता के साथ पेश किये है।
ग्रंथ के खंड सात, आठ और नौ में शास्त्री जी ने भारतीय राष्ट्रीयता और संस्कृति, राष्ट्रीय चेतना के मूल आधार-सहयोग और समानता, राष्ट्रीय एकता के साधन, सांस्कृतिक एकता की समस्या, परिवर्तन की चुनौती, आरक्षण की समस्या, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र, भारत के महान नेता और ङ्क्षचतक महात्मा गांधी, आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ० राजेन्द्रप्रसाद, लालबहादुर शास्त्री इत्यादि के जीवन और कार्यों का गुणानुस्मरण किया है।
प्रो० राजाराम शास्त्री जी का यह मौलिक ग्रंथ सिर्फ एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज ही नहीं है बल्कि एक महान ङ्क्षचतक का नयी पीढ़ी के लिए एक प्रेरणादायक संदेश भी है।