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OUT OF STOCKखुदा को हाजिर-नाजिर जानकर मैं इस बात को कबूल करता हूँ कि बनारस को मैंने जितना जाना-समझा है, उसका सही-सही चित्रण पूरी ईमानदारी से किया है। प्रस्तुत पुस्तक जिस शैली में लिखी गयी है, आप स्वयं ही देखेंगे। जहाँ तक मेरा विश्वास है, किसी नगर के बारे में इस प्रकार की व्यंग्यात्मक शैली में वास्तविक परिचय देने का यह प्रथम प्रयास है। इस संग्रह के कुछ लेख जब प्रकाशित हुए तब उनकी चर्चा वह रंग लायी कि लेखक सिर्फ हल्दी-चूने के सेवन से वंचित रह गया। दूसरी ओर प्रशंसा के इतने पत्र प्राप्त हुए कि अगर समझ ने साथ दिया होता तो उन्हें रद्दी में बेचकर कम से कम रियायती दर वाला सिनेमा शो तो देखा ही जा सकता था। इन लेखों में कहीं-कहीं जनश्रुतियों का सहारा मजबूरन लेना पड़ा है। प्रार्थना है कि 'श्रुतियों’ और 'स्मृतियों’ को ऐतिहासिक सत्य न समझा जाय। हाँ, जहाँ सामाजिक और ऐतिहासिक प्रश्न आया है, वहाँ मैंने धर्मराज बनकर लिखने की कोशिश की है। पुस्तक में किसी विशेष व्यक्ति, संस्था या सम्प्रदाय को ठेस पहुँचाने का प्रयत्न नहीं किया गया है, बशर्ते आप उसमें जबरन यह बात न खोजें। अन्त में इस बात का इकबाल करता हूँ कि मैंने जो कुछ लिखा है, होश-हवास में लिखा है, किसी के दबाव से नहीं। ये चन्द अल्फाज़ इसलिए लिख दिये कि मेरी यह सनद रहे और वक्त जरूरत पर आपके काम आये। बस फ़कत।