Sadhan-Path / साधन-पथ
Author
: Gopinath Kaviraj
Language
: Hindi
Book Type
: General Book
Category
: Adhyatmik (Spiritual & Religious) Literature
Publication Year
: 2020, 2nd Edition
ISBN
: 9788171248001
Binding Type
: Hard Bound
Bibliography
: viii + 148 Pages, Size : Demy i.e. 22.5 x 14.5 Cm.

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प्रात:स्मरणीय महामहोपाध्याय डॉ० पं० गोपीनाथ कविराजजी के इतस्तत: बिखरे उपदेश वाक्यों तथा लेखों के अनुवाद का यह संग्रह एक प्रकार से भले ही क्रमबद्ध रूप से विषय की आलोचना का रूप न ले सके, तथापि इसकी प्रत्येक पंक्ति में स्तरानुरूप पथ का सन्धान मिलता रहता है। यहाँ पथ का तात्पर्य आन्तरिक पथ है। बाह्य पथ यह संसार है। सम्पूर्ण संसार में से हमारी इस पृथ्वी का चक्रमण मनुष्य साध्य है। आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से इस विशाल पृथ्वी का प्रसार हम नाप लेते हैं। उसकी परिक्रमा अनायास कर लेते हैं। वह सब एक पथ का आश्रय लेने से होता है। परन्तु अन्तर्जगत् जो हमारे अस्तित्व में स्थिति है, वह भले ही इस साढ़े तीन हाथ की देह का जगत है, परन्तु वह अन्तर्जगत् आज भी हमारे लिए अज्ञात है। क्योंकि उसमें प्रवेश करने पर कोई पथ खोजे भी नहीं मिलता। हजारों-हजारों किलोमीटर की इस भूमण्डल की परिक्रमा उतनी कठिन नहीं है, जितना कठिन है इस अन्तर्जगत के पथ पर एक बिन्दु भी अग्रसर हो सकता। हम बाह्य जगत् के गुरुत्वाकर्षण तथा वायुमण्डल के अवरोध को पार करते हुए उसमें भले ही आगे बढ़ते चले जाते हैं, परन्तु अन्तर्जगत के मध्याकर्षण से पार पा सकना विज्ञान के लिए भी दु:ष्कर है। बलदाकृष्य मोहाय मोहरूपी मध्याकर्षण बलात् आकृष्ट करके हमें पथ के आरम्भ में ही रोक देता है। हम इस दुरन्त अवरोध से, मध्याकर्षण से छुटकारा पाये बिना अन्तर्जगत् में कैसे अग्रसर हो सकते हैं? अत: इसके लिए पहले साधन के पथ पर चलना होगा। तभी हम कालान्तर में अन्तर्जगत् के अज्ञात परन्तु प्रकाशोज्ज्वल पथ पर आगे बढ़ सकते हैं। इस संकलन ग्रन्थ में ऐसा ही कुछ दिशा निर्देश है। पहले साधन पथ, तदनन्तर अन्त:पथ। अथवा दोनों पर ही युगपत् रूप से एक साथ भी चालन हो सकता है। इसका स्वरूप कृपा सापेक्ष है। गुरुकृपा, भगवत् कृपा तथा शास्त्र कृपा! भगवत् कृपा का कोई नियम नहीं है, गुरु कृपा आज के परिवेश में और भी दुष्कर हो गई है। सद्गुरु का पता नहीं चलता, वैसे तो गुरु नगर-नगर, गली-गली भरे पड़े हैं। त्रेता तथा सत्ययुग में भी इतने गुरु नहीं रहे होंगे! परन्तु सद्गुरु...? अन्त में बचती है शास्त्रकृपा। सत्शास्त्र वह है जिसे स्वानुभूति से लिखा, बताया सुनाया गया हो। केवल शब्दों का जाल न हो। जिसमें आखिन की देखी की छवि झलकती हो। यह साधन-पथ तथा इसमें प्रतिपाद्य प्रत्येक विषय प्रत्यक्ष पर आधारित है। स्वानुभूत सत्य है। अत: शास्त्र है। इसलिऐ इसके अनुशीलन अध्ययन से शास्त्रकृपा प्राप्त हो जाती है। जो इस अनुभूति सागर में जितना गोता लगा सकेगा, वह उतने ही रत्न का, कृपारूपी मुक्ता का आहरण कर सकेगा। यह नि:संदिग्ध है।