Bhramar Geet : Darshanik Vivechan / भ्रमर गीत : दार्शनिक विवेचन
Author
: Karpatri Ji Maharaj
Language
: Hindi
Book Type
: General Book
Category
: Adhyatmik (Spiritual & Religious) Literature
Publication Year
: 2018
ISBN
: 9789387643017
Binding Type
: Hard Bound
Bibliography
: viii + 168 Pages, Size : Demy i.e. 22.5 x 14.5 Cm.

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भ्रमर गीत
'श्रीमद्भागवत' के दशम-स्कन्ध के अन्तर्गत चार गीत उपलब्ध होते हैं; 'वेणु-गीत', 'गोपी-गीत', 'युगल-गीत' और 'भ्रमर-गीत'। ये गीत अत्यन्त भावपूर्ण हैं। इनके श्रवण, अध्ययन एवं मनन से अन्त:करण की शुद्धि होती है, साथ ही भगवत्-चरणारविन्दों में दृढ़ प्रीति का उदय होता है। दशम-स्कन्ध का 47वाँ अध्याय 'भ्रमर-गीत' आख्यात है; इस गीत में गोप-बालिकाओं ने भगवान् श्रीकृष्ण को उलाहना देने के ब्याज से उनका संकीर्तन किया है।  
श्रीमद्भागवत में आनन्द-कन्द, परमानन्द, परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र के नाना प्रकार की लीलाओं का वर्णन है। यह लीलाएँ भी दो प्रकार की हैं—सम्प्रयोगात्मक एवं विप्रयोगात्मक। गोवर्धन-लीला, नाग नाथने की लीला, चीर-हरण लीला, दधि-दान लीला आदि सम्प्रयोगात्मक लीलाएँ हैं। इनमें श्रीभगवान् और उनके भक्तों के सम्मिलन की लीलाएँ हैं; विप्रयोगात्मक लीलाओं के अन्तर्गत भक्तों का भगवान् के साथ वियोग हो जाता है; भगवान् से वियुक्त होकर भक्त जिस अतुलनीय संताप का अनुभव करता है, वही विशेष महत्त्वपूर्ण है। जैसे आतप से संतप्त प्राणी ही छाया के सुख का यथार्थ अनुभव कर पाता है वैसे ही विप्रलम्भ से रस की निष्पत्ति होने पर ही संप्रयोग-सुख का गूढ़ स्वाद मिलता है। श्रृंगार-रस रूप अमृत के दो चषक हैं—एक सम्प्रयोगात्मक रस से और दूसरा विप्रयोगात्मक रस से परिपूर्ण है तथापि दोनों परस्पर पूरक हैं।
सम्प्रयोगात्मक सुख की पूर्ण उपलब्धि के लिए पूर्व-राग अनिवार्य है। प्रियतम-मिलन की सम्भावना ही पूर्व-राग है। सम्भावना के आधार पर ही उत्कट उत्कंठा वृद्धिगत होती है; उत्कट उत्कंठा से ही तीव्र प्रयास सम्भव होता है। 'वेणुगीत' में पूर्वराग का ही वर्णन है। भौतिक लाभ की तृष्णा से विनिर्मुक्त हो भगवत्-पदाम्बुज-सम्मिलन की आशा-लता को पल्लवित-प्रफुल्लित करना ही पूर्व-राग है।
भगवान के सौन्दर्य, माधुर्य, सौरस्य, सौगन्ध्य आदि के गुण-गणों का रसास्वादन ही भगवत्-सम्प्रयोग है। सम्भोग-सुख-प्राप्ति के अनन्तर वियोग हो जाने पर जो अतुलनीय ताप होता हैै वह पूर्व-राग के ताप की अपेक्षा कई गुणा अधिक होता है। 'भ्रमर-गीत' में विप्रलम्भ-शृंगार का ही वर्णन है।